Wednesday, March 14, 2012

पड़ाव

वक़्त बेवक्त ज़माने की बंदिशों में
एक आज़ाद परिंदे सा एहसास,
जो पलता रहा कलेजे में बरसों से
खुल कर साँस लेने का वो साज़,
जीने की चाहत की तलाश में एक भंवरे सा,
ता-उम्र, फूलों पर भटकता हुआ सा अंदाज़|

ख्वाहिशें अपनी थीं, रास्ते भी अपने से
दो कदम इस ओर तो, दो चल पड़े उस ओर
मुसाफ़िरों की महफ़िल, मयकदे जैसी मंजिल,
किसी मुसाफिर से मुहब्बत में डूबा कभी दिल,
कभी उम्मीदों की परवाह में टूट कर बिखरा तो
कभी टुकड़े टुकड़े जोड़ कर संभला भी ये दिल
कुछ पल का साथ फिर वो कह गये अलविदा
यादों में उनके कई पल, बहुत रोया भी ये दिल |

पर कुतरे हुए परिंदे सा फड-फडाता, कभी गिरता
फिर संभलता, लड़खड़ाते क़दमों को झकझोरता
कुछ रंजिशें की, कभी किसी से कुछ फरमाइसें की
कुछ पल शौक से जिंदगी के पन्नों की नुमयिसें की
शायरी का मज़हब टटोला, मयकशी में जीवन भी घोला
ज़ज्बातों की स्याही से कोरे कागज़ को पहनाया चोला|

मझधारों की मौज में कभी डूबता,
फिर उभरता
कभी थमी धार के संग बहता,
कभी पत्थरों की ठोकरें सहता
हौसले फिर भी खोने न दिए,
सब कुछ हिम्मत से सह लिए
उम्मीद में बस इतने कि
एक दिन वो पड़ाव आएगा
जहाँ वक़्त भी मेरे क़दमों में
इक बार गर्व से सर झुकाएगा
एक आज़ाद परिंदे सा एहसास
मेरे ख्वाबों का आँगन मेहकायेगा