कभी तो सोचता हूँ मैं भी
कि मेरा लक्ष्य क्या है?
पता नहीं, मेरा अस्तित्व भी
मझधार के किस ओर मंडरा रहा है?
या फिर, किसी पर-कटे परिंदे सा
एक ऊंचाई पर बने रहने को फड़फड़ा रहा है?
क्या मैं सही राह पर भी हूँ?
या फिर दिशाहीन हो भटक रहा हूँ?
कितनों ने उंचाईयां छू ली
और कितने ही संघर्ष में पिस भी गए
मैं भी तो और उड़ना चाहता हूँ
पता नहीं, किस पंख की तलाश में हूँ?
कभी हौसले टूटते से लगते
कि शायद टूट कर बिखर जाऊँगा
सहम सा जाता हूँ शायद
या, सचमुच किसी का इंतज़ार है,
फिर कभी हौसले संभाल कर
आसमां की तरफ एक-टक देखता हूँ
शायद कोई तो सुराख मिले
जो मैंने बनाया हो, अपनी मंजिल की ओर
या फिर, बस चलता चला जा रहा हूँ?
उम्मीद में इतने कि अपनी मंजिल ढूंढ पाउँगा
उम्मीद का भी क्या भरोसा
कभी सच में टूट गयी तो?
क्या मैं मायूस हो कर कहीं,
सच में बिखर तो नहीं जाऊँगा?
फिर तो बस, एक ही ख्याल आता है
खुद पर भरोसा नहीं छोड़ूंगा कभी
कुछ राह भटक गए भी तो क्या
नए फिर हम ढूंढ लाएंगे
हाँ, मानता हूँ संघर्ष होगा बहुत
पर फिर, बहुत कुछ सीखा भी तो होगा मैंने
एक नयी उम्मीद की धार मिलेगी
शायद उसी मझधार के बीचो-बीच
या फिर, शायद सच में पंख ढूंढ लाऊंगा
और अपनी उड़ान पूरी कर पाउँगा
यूँ हैं जिंदगी के मझधारों में संघर्ष करता
अक्सर ऐसा ही कुछ सोचता रहता हूँ मैं