Thursday, August 02, 2012

क्यूँ तुम्हें खो दिया


खुद से, खुद के सवालों में मैं यूँ उलझा हुआ सा हूँ
कुछ पाने की कोशिश में कहीं खोया हुआ सा हूँ
एक सवाल जाने क्यूँ इतना तडपा रहा है मुझे
यादों के अंधियारे में उसका उत्तर ढूंढ रहा हूँ
जीवन के झरोखे का आइना बना कर, शायद
अपने चेहरे की मायूसी का मतलब ढूंढ रहा हूँ

यादों के भंवर में हीं मोती ढूंढ रहा था पर
शायद, किसी बवंडर की ओर रुख ले लिया
न चाहते हुए भी कुरेद रहा हूँ अपने हीं जख्मों को
डर भी है, फिर से डूबने का, और दर्द भी, क्यूँ तुम्हें खो दिया
अनजान राहों पर भी हाथ थामे तुम्हारा चला जाता था मैं
आग़ोश में तेरे बस यूँ हीं, सपनों में खो जाता था मैं
एक विश्वास था वो दामन, पर जाने कब, कैसे टूट गया
शायद शीशे के सपने थे, कभी किसी पत्थर से टकरा गए
साथ तुम्हारे हो कर भी, न जाने कैसे तुमको खो दिया!

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