Sunday, November 03, 2013

पर, खुश हूँ मैं

क्यूँ दरारों की ज़रूरत थी,
कि अपने रास्ते अलग हो सकें?
होठों पर मुस्कराहट,
और आँखें नम थीं
कि यादों की गहराई में
हम खो सकें?
दिल के मासूम टुकड़ों से
पूछा ना कभी
कि लापरवाह इश्क़ की छाव में
तुम इतना क्यूँ इतरा रहे थे?
बेचारा, आने वाले
इम्तेहां से बेख़बर जो था।
क्यूँ छोड़ दिया उसी हाल पर
कि नादानियों से शाय़द सीख सके?

ख़ैर, छोड़ो
इक सुकून है बस इस बात का
कि तुम्हें इतने क़रीब से जाना
रास्ते अलग हुए तो क्या
यादों की रौशनी साथ है ना
उन्हीं मासूम दिल के टुकड़ों को 
जोड़ कर, फिर चल पड़ा हूँ मै
राह नयी है, साथ तुम भी तो नहीं हो
पर, खुश हूँ मैं
हसीं वादियों के बीच,
खुले आसमां के नीचे,
दरिया की कल-कल धारा कि गोद में,
उन यादों को दोहराऊंगा मैं
खुशियों से भरा एक अपना,
छोटा सा जहाँ, बनाऊंगा मैं। 

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