घनघोर घटा की वादी में
उनमुक्त मनपंछी की आजादी में
गगनदीप था उमड रहा
अलसायी घटा में घुमड रहा
मन मदमस्त हस्ती सा मचल रहा
प्रिय मिलन की तृष्णा में कुचल रहा
थामने को बढाया था हाथ किसी ने
साथ देने का दिया था विश्वास किसी ने
थम गये क्यूँ हमारे बढे हाथरूक गये क्यूँ सहम कर वो कदम
और आज भी
जाने क्यों मन यही सवाल करता है
जाने क्यों खुद से ही ये डरता है
खुद से हीं मन जब ये उत्तर माँगता है
परछायी की ओर मुँह कर
खुद को हीं निरूत्तर पाता है
कस्तूरी की तृष्णा में
दौड लगाते हुए मृग की तरह
अपनी कस्तूरी हीं नहीं ढूंढ पाता है
उनमुक्त मनपंछी की आजादी में
गगनदीप था उमड रहा
अलसायी घटा में घुमड रहा
मन मदमस्त हस्ती सा मचल रहा
प्रिय मिलन की तृष्णा में कुचल रहा
थामने को बढाया था हाथ किसी ने
साथ देने का दिया था विश्वास किसी ने
थम गये क्यूँ हमारे बढे हाथरूक गये क्यूँ सहम कर वो कदम
और आज भी
जाने क्यों मन यही सवाल करता है
जाने क्यों खुद से ही ये डरता है
खुद से हीं मन जब ये उत्तर माँगता है
परछायी की ओर मुँह कर
खुद को हीं निरूत्तर पाता है
कस्तूरी की तृष्णा में
दौड लगाते हुए मृग की तरह
अपनी कस्तूरी हीं नहीं ढूंढ पाता है
2 comments:
self realization !! its gud ..
apne aap ko jaanne ki koshish karna bahut zaroori hai..
acchi pradarshani hai shabdo ki..
padhke accha laga..
likhte raho aur seekhte raho!
i feel this is the best creation of poems by u.both as a technical as well as sentimental point of view.and may the "mrigA" find its kastuRi.
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